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कविता

रमराजी

जनार्दन पांडे अनुरागी


अनुरागी के देखि बिरागी काहे दुनिया रोई
देहिया धइले ना जानीं कि का केकर गति होई

हमरे घर के पीछे रहली ह बुढ़िया रमराजी
जिनिगी भर विधवापन खेयली खइली सतुआ-भाजी
जनमे उनके बपसी मरलें गवना होते माई
सेजिया चढ़ते पिया गुजरलें एइसन करम कमाई

ससुरे उनुका कोइला बरिसल नइहर भरल अन्‍हरिया
बोझा भइल जवानी दिन-दिन बैरिन भइल उमिरिया

सोना जेकर खाक हो गइल हीरा हो गइल माटी
ऊ कइसे डोली दुनिया में कइसे जिनिगी काटी
रमराजी नइहर में आके कइलिन दर-दर फेरा
जेकर टुकड़ा खइली ओ दिन ओही के घर डेरा

ईंटा उनके रहल सिर्हानी गुदरा भइल रजाई
माथे पर सेवार छितराइल आँखिन गंगा माई
राखी में आगी के अइसन लुगरी में सुघराई
देखि-देखि के फटल करेजा केतना ईं दुख गाईं

जवने रात के चान हेराइल ओकर कवन अँजोरिया
जवने नदिया सूखल पानी ओकर कवन लहरिया
जिनिगी जेकर रेत हो गइल ओकर कइसन धारा
ओकर कइसन उद्गम-संगम ओकर कवन किनारा

रमराजी कवने अरार पर सुधि के दियना बारें
केकरे खातिर हँसि-हँसि आपन मातल रूप सँवारें

केकर रहिया जोहि-जोहि के सँझिया रोज बोलावें
केसे मन के बतिया कहि-कहि रतिया के भरमावें
होत बिहाने हाथ जोर के केकर सगुन मनावें
मुँह पर जोति जगावे खातिर केके रोज जगावें

कोंढ़ी जवन किरिन ना देखलस ओकर कवन कहानी
बेइल जवन अलम ना धइलस ओकर कवन जवानी
असन अधमारल जिनिगी पर के ना आँसु बहाई
केकर कठिन करेजा जे रमराजी के दुख गाई

दुनिया अपने रंग में मातल आपन साज सँवारे
रमराजी मुँह में अँचरा दे हरदम सुसुकी मारें

हाय गोसइँया। दुख का जनलऽ, कइलऽ तू मनमानी
रमराजी के आगी दिहलऽ अवरू सबके पानी
जेकर साज बिगड़बऽ ऊहे दर-दर ठोकर खाई
अपनी मुँअले छाती पर ऊहे कोदो दरवाई

रमराजी के सखी सहेलरि हँसि-हँसि ताना मारें
माई-बहिनी टुकड़ा दें त झइहावें दुतकारें
केहू कहे पिसाचिन अबहीं केके-केके खाई
केहू कहे अभागिन अबसे हमरे घर जनि आई

दइबे के जे जारल जिनिगी, दुनिया नून लगावे
ओकर के दाही दुनिया में जेके राम सतावें
दहकल जिनिगी रमराजी के, के ना खाक रमाई
रमराजी के मरजादा पर के ना माथ नवाई

अनुरागी के देख बिरागी काहे दुनिया रोई
देहिया धइले ना जानी कि, केकर का गति होई

 


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